राजधानी में प्रसिद्ध हैं अलग-अलग दिशा में विराजीं देवियां

रायपुर । छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में अलग-अलग दिशा में देवियों के प्रसिद्ध मंदिर हैं, जहां रोज आस्था की लहर बहती है। चैत्र नवरात्र और क्वांर नवरात्र में इन मंदिरों में दर्शन करने हजारों भक्त उमड़ते हैं। शहर के लोग मानते हैं कि इन देवियों के आशीर्वाद से राजधानी फल-फूल रही है।


राजा मोरध्वज के काल में महामाया की मूर्ति की स्थापना


पुरानी बस्ती स्थित मां महामाया देवी मंदिर का इतिहास सैकड़ों साल पुराना है। मान्यता है कि राजा मोरध्वज के काल में देवी प्रतिमा प्रतिष्ठापित की गई। मंदिर के गर्भगृह में सैकड़ों साल से अखंड जोत जल हो रही है। नवरात्र में अलग से महाजोत प्रज्ज्वलित की जाती है। यह जोत माचिस की तीली से नहीं, बल्कि चकमक पत्थर को रगड़ने से निकलने वाली चिंगारी से प्रज्ज्वलित होती है। महाजोत से अग्नि लेकर हजारों भक्तों की आस्था की जोत जलाई जाती है।


कहा जाता है कि हैहयवंशी राजाओं ने छत्तीसगढ़ में 36 किले (गढ़) बनवाए। हर किले में मां महामाया के मंदिर बनवाए। इनमें से एक गढ़ है रायपुर, जहां मां महामाया और मां समलेश्वरी देवी मंदिर परिसर में विपरीत दिशा में प्रतिष्ठापित हैं। राजा मोरध्वज द्वारा बनवाए गए मंदिर का कालांतर में भोसला राजवंशीय सामंतों ने नवनिर्माण करवाया। मुगल शासनकाल और अंग्रेजी शासनकाल में भी माता के चमत्कार से मंदिर की प्रसिद्धि बढ़ती चली गई।


 

श्रीयंत्र की आकृति का गुंबद


मंदिर के पुजारी पं. मनोज शुक्ला के अनुसार मां महामाया देवी मां महाकाली के स्वरूप में यहां विराजमान हैं। इसी के ठीक सामने चंद कदमों की दूरी पर मां सरस्वती के स्वरूप में मां समलेश्वरी देवी विराजित हैं। गर्भगृह की निर्माण शैली तांत्रिक विधि की है। मां के मंदिर का गुंबद श्री यंत्र की आकृति का बनाया गया है।


गर्भगृह में तिरछी दिखती है प्रतिमा


 

अमूमन मंदिरों में देवी-देवताओं की प्रतिमाएं बिलकुल सीधी दिखाई देती हैं, लेकिन मां महामाया देवी मंदिर में विराजी मां की मूर्ति थोड़ी-सी तिरछी दिखती है। इसका कारण यह बताया जाता है कि कल्चुरि वंश के राजा मोरध्वज, मां के स्वप्न में दिए आदेश पर खारुन नदी से प्रतिमा को सिर पर उठाकर पैदल चले। जब थक गए तो प्रतिमा को एक शिला पर रख दिया। रखते समय प्रतिमा थोड़ी तिरछी हो गई। इसके बाद लाख कोशिश की गई, किंतु प्रतिमा उस जगह से नहीं हिली। मजबूर होकर उसी अवस्था में मंदिर का निर्माण किया गया। यही वजह है कि प्रतिमा तिरछी दिखाई देती है। गर्भगृह में दो खिड़कियां हैं। दाहिनी ओर की खिड़की से प्रतिमा दिखाई देती है, लेकिन बाईं खिड़की से नहीं दिखती।


मां के चरणों में पहुंचती हैं सूर्य की किरणें


वास्तु शास्त्र और तांत्रिक पद्धति से निर्मित मंदिर में सूर्योदय के समय किरणें मां समलेश्वरी देवी मंदिर पर और सूर्यास्त के समय मां महामाया के चरणों को स्पर्श करती हैं।


500 साल पुराना है बंजारों की देवी मां बंजारी का इतिहास


राजधानी के रावांभाठा इलाके में स्थित बंजारी मंदिर का इतिहास 500 साल पुराना है। मुगलकाल में यह छोटा-सा मंदिर था। इसका नवनिर्माण 1980 में किया गया। मान्यता है कि देश भर में घूमने वाले बंजारा जाति के लोगों ने वीरान जंगल में धरती से प्रकट हुई प्रतिमा को प्रतिष्ठापित किया था। इस कारण इसे बंजारी देवी कहा जाने लगा। बंजारी माता की मूर्ति बगलामुखी रूप में होने के कारण तांत्रिक पूजा के विशेष माना जाता है। मूर्ति का मुख उत्तर-पश्चिम दिशा में होने से इसे वास्तु के अनुसार उत्तम माना जाता है।


स्वर्ग-नरक की झांकी दर्शनीय


वर्तमान में मंदिर का स्वरूप भव्य हो चुका है। यहां भगवान शिव की 25 फीट ऊंची प्रतिमा और स्वर्ग-नरक की झांकी को प्रस्तुत करती मूर्तियां आकर्षण का केंद्र हैं।


इंडिया गेट की तर्ज पर अमर जवान जोत


बंजारी मंदिर देश का इकलौता मंदिर है, जहां मुख्य प्रवेश द्वार पर इंडिया गेट की तर्ज पर अमर जवान जोत प्रज्ज्वलित हो रही है। साथ ही तिरंगा लहरा रहा है। युवा इस मंदिर में देवी के दर्शन करने के साथ ही अमर जवान जोत के समक्ष सलामी देते हैं। मंदिर में राष्ट्रभक्ति की भावना प्रबल हो रही है।


नागा साधुओं ने की थी मां कंकाली की स्थापना


पुरानी बस्ती इलाके में 500 साल पुराना मां कंकाली का प्रसिद्ध मंदिर है। कहा जाता है कि पुराने जमाने में यहां श्मशानघाट हुआ करता था। नागा साधु इस इलाके में तपस्या करते थे, उन्होंने ही यहां मां काली की स्थापना की। कंकाल (अस्थियों) का विसर्जन तालाब में करने से यह मंदिर कंकाली के नाम से मशहूर हुआ।


साल में एक बार खुलता है मठ


जिस जगह पहले मां की प्रतिमा प्रतिष्ठापित की गई थी, वह मठ कहलाता था। कालांतर में प्रतिमा को मंदिर में स्थानांतरित किया गया। अब मठ में रखे प्राचीन शस्त्रों की पूजा करने के लिए साल में एक बार दशहरे के दिन ही पुराने मठ को खोला जाता है। दूसरे दिन बंद कर दिया जाता है।


नागा साधुओं की समाधि


महंत कृपाल गिरि ने कंकाली मंदिर का निर्माण करवाया था। मां ने साक्षात उन्हें दर्शन दिया था, लेकिन वे पहचान नहीं सके। उन्हें अपनी भूल का एहसास हुआ तो उन्होंने जीवित समाधि ले ली। मठ के समीप ही नागा साधुओं की समाधि बनी हुई है। मंदिर के भीतर नागा साधुओं के कमंडल, वस्त्र, चिमटा, त्रिशूल, ढाल, कुल्हाड़ी आदि रखे हुए हैं।


माना जाता है कि काफी समय तक इस मंदिर में नागा साधु भगवान शिव की पूजा-अर्चना करने आते थे। अचानक यहां पर ऐसा चमत्कार हुआ कि धरती से पानी की धारा फूट पड़ी और मंदिर पूरी तरह से तालाब में डूब गया। इसके बाद कई बार तालाब के पानी को निकालने की कोशिश हुई पर हर बार मंदिर डूब जाता था। वर्तमान में भी 25 फीट से ज्यादा ऊंचा शिव मंदिर पानी में डूबा हुआ है। ऊपरी कलश ही दिखाई देता है। यहां पर सदियों से कंकाली माता की पूजा भगवान शिव से पहले की जाती है। इसके बाद तालाब के ऊपर से ही भगवान शिव की आराधना की जाती है।


भीषण गर्मी में भी नहीं सूखता तालाब


गर्मी के समय जब राजधानी के नदी-तालाब सूखने लगते हैं तब भी छत्तीसगढ़ का ये चमत्कारी कंकाली तालाब हमेशा की तरह लबालब रहता है। इसी कारण आज तक कोई भी इस तालाब में डूबे मंदिर के दर्शन नहीं कर पाया है।


तालाब में डुबकी लगाने से मिलती है रोगों से मुक्ति


लोगों का मानना है कि इस तालाब में नहाने से कई खुजली, अन्य चर्म रोग ठीक हो जाते हैं। गंभीर बीमारियों से राहत मिलती है। नवरात्र के दौरान घर-घर में बोए जाने वाले जंवारा और जोत का विसर्जन इसी तालाब में किया जाता है।